आरटीई अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं:सुप्रीम कोर्ट-
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) की संवैधानिकता को वैध करार देते हुए कहा है कि यह सहायता प्राप्त या गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा। जबकि इस कानून के तहत अन्य सभी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है।
चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने आरटीआई कानून को संवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होता। चाहे वह संस्थान सरकार से सहायता या गैर सहायता प्राप्त हो। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस एके पटनायक, जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय, जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एमएमआई खलीफुल्ला भी शामिल हैं। संविधान पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 21 (क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है। शिक्षा का अधिकार कानून से जुड़ा यह मसला 23 अगस्त, 2013 को न्यायाधीशों की तीन सदस्यीय पीठ ने पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा था क्योंकि इसमें गैर सहायता वाले निजी शिक्षण संस्थानों के अधिकारों से संबंधित महत्वपूर्ण संवैधानिक मसला उठाया गया था।
अप्रैल, 2013 से पहले शीर्षस्थ अदालत के दो न्यायाधीश की पीठ यह मामला तीन न्यायाधीशों की पीठ को सौंपा था। 350 से अधिक निजी गैर सहायता वाले स्कूलों के संगठन फेडरेशन आफ पब्लिक स्कूलों की दलील थी कि यह कानून सरकार के हस्तक्षेप के बगैर ही उनके स्कूल संचालन के अधिकार का हनन करता है। याचिका में यह भी दलील दी गई थी कि हालांकि 2012 में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस कानून को वैध ठहराया था। लेकिन इसमें त्रुटि रह गई थी क्योंकि न्यायालय ने संविधान पीठ की पहले की इन दो व्यवस्थाओं पर गौर नहीं किया था कि सरकार निजी संस्थाओं के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। इस संगठन के वकील का कहना था कि पहले की व्यवस्थाओं में कहा गया था कि इस तरह के हस्तक्षेप से संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1), 19(1) और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।
संसद ने 2009 में संविधान में अनुच्छेद 21-क को शामिल करके शिक्षा का अधिकार कानून पारित किया था। इसके तहत 6 से 14 साल के बच्चों के लिए अनिवार्य रूप से मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया था। याचिकाकर्ता का कहना था कि 2012 में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने गलती से गैर अल्पसंख्यक गैर सहायता वाली शिक्षण संस्थाओं के लिए अनुच्छेद 21क को वैध ठहराया था, जबकि अल्पसंख्यकों की ओर से संचालित शिक्षा संस्थाओं के संदर्भ में इसे असंवैधानिक ठहराया था।
अन्य सभी स्कूलों में कमजोर वर्ग के लिए 25 फीसदी सीटें
#प्राथमिक शिक्षा में नहीं थोप सकते मातृभाषा
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को व्यवस्था दी है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा देने के लिए भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए मातृ या क्षेत्रीय भाषा अनिवार्य नहीं कर सकती है। प्राथमिक शिक्षा में इन भाषाओं को थोपा नहीं जा सकता।
चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि सरकार को भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए अनिवार्य रूप से मातृ या क्षेत्रीय भाषा लागू करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस एके पटनायक, जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय, जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एफएमआई खलीफुल्ला शामिल है।
संविधान पीठ के समक्ष यह मामला कर्नाटक सरकार के 1994 के दो आदेशों के कारण पहुंचा था। इन आदेशों में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था। सरकार के इन आदेशों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी।
गत वर्ष जुलाई में दो न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि इस मसले पर संविधान पीठ विचार करेगी कि क्या सरकार प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य कर सकती है क्योंकि बच्चों के विकास में इसका दूरगामी महत्व है। अदालत का मत था कि बड़ी पीठ की ओर से विचार के लिए उपयुक्त विषय है।
अदालत ने कहा था कि यह मसला वर्तमान पीढ़ी के मौलिक अधिकारों से ही नहीं, बल्कि अभी जन्म लेने वाली पीढ़ियों से भी जुड़ा हुआ है। अदालत ने कहा था कि इस मसले को बड़ी पीठ के पास भेजना होगा क्योंकि 1993 में दो सदस्यीय पीठ ने प्राथमिक स्कूल के स्तर पर प्रत्येक बच्चे को मातृभाषा कन्नड़ में ही अनिवार्य रूप से शिक्षा देने के कर्नाटक सरकार के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था।
कर्नाटक सरकार ने कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया था।
साभार: bsafrrukhabad
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) की संवैधानिकता को वैध करार देते हुए कहा है कि यह सहायता प्राप्त या गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा। जबकि इस कानून के तहत अन्य सभी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है।
चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने आरटीआई कानून को संवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होता। चाहे वह संस्थान सरकार से सहायता या गैर सहायता प्राप्त हो। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस एके पटनायक, जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय, जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एमएमआई खलीफुल्ला भी शामिल हैं। संविधान पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 21 (क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है। शिक्षा का अधिकार कानून से जुड़ा यह मसला 23 अगस्त, 2013 को न्यायाधीशों की तीन सदस्यीय पीठ ने पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा था क्योंकि इसमें गैर सहायता वाले निजी शिक्षण संस्थानों के अधिकारों से संबंधित महत्वपूर्ण संवैधानिक मसला उठाया गया था।
अप्रैल, 2013 से पहले शीर्षस्थ अदालत के दो न्यायाधीश की पीठ यह मामला तीन न्यायाधीशों की पीठ को सौंपा था। 350 से अधिक निजी गैर सहायता वाले स्कूलों के संगठन फेडरेशन आफ पब्लिक स्कूलों की दलील थी कि यह कानून सरकार के हस्तक्षेप के बगैर ही उनके स्कूल संचालन के अधिकार का हनन करता है। याचिका में यह भी दलील दी गई थी कि हालांकि 2012 में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस कानून को वैध ठहराया था। लेकिन इसमें त्रुटि रह गई थी क्योंकि न्यायालय ने संविधान पीठ की पहले की इन दो व्यवस्थाओं पर गौर नहीं किया था कि सरकार निजी संस्थाओं के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। इस संगठन के वकील का कहना था कि पहले की व्यवस्थाओं में कहा गया था कि इस तरह के हस्तक्षेप से संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1), 19(1) और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।
संसद ने 2009 में संविधान में अनुच्छेद 21-क को शामिल करके शिक्षा का अधिकार कानून पारित किया था। इसके तहत 6 से 14 साल के बच्चों के लिए अनिवार्य रूप से मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया था। याचिकाकर्ता का कहना था कि 2012 में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने गलती से गैर अल्पसंख्यक गैर सहायता वाली शिक्षण संस्थाओं के लिए अनुच्छेद 21क को वैध ठहराया था, जबकि अल्पसंख्यकों की ओर से संचालित शिक्षा संस्थाओं के संदर्भ में इसे असंवैधानिक ठहराया था।
अन्य सभी स्कूलों में कमजोर वर्ग के लिए 25 फीसदी सीटें
#प्राथमिक शिक्षा में नहीं थोप सकते मातृभाषा
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को व्यवस्था दी है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा देने के लिए भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए मातृ या क्षेत्रीय भाषा अनिवार्य नहीं कर सकती है। प्राथमिक शिक्षा में इन भाषाओं को थोपा नहीं जा सकता।
चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि सरकार को भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए अनिवार्य रूप से मातृ या क्षेत्रीय भाषा लागू करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस एके पटनायक, जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय, जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एफएमआई खलीफुल्ला शामिल है।
संविधान पीठ के समक्ष यह मामला कर्नाटक सरकार के 1994 के दो आदेशों के कारण पहुंचा था। इन आदेशों में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था। सरकार के इन आदेशों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी।
गत वर्ष जुलाई में दो न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि इस मसले पर संविधान पीठ विचार करेगी कि क्या सरकार प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य कर सकती है क्योंकि बच्चों के विकास में इसका दूरगामी महत्व है। अदालत का मत था कि बड़ी पीठ की ओर से विचार के लिए उपयुक्त विषय है।
अदालत ने कहा था कि यह मसला वर्तमान पीढ़ी के मौलिक अधिकारों से ही नहीं, बल्कि अभी जन्म लेने वाली पीढ़ियों से भी जुड़ा हुआ है। अदालत ने कहा था कि इस मसले को बड़ी पीठ के पास भेजना होगा क्योंकि 1993 में दो सदस्यीय पीठ ने प्राथमिक स्कूल के स्तर पर प्रत्येक बच्चे को मातृभाषा कन्नड़ में ही अनिवार्य रूप से शिक्षा देने के कर्नाटक सरकार के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था।
कर्नाटक सरकार ने कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया था।
साभार: bsafrrukhabad