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बरेली : मिडडे मील में कम मिले सेहत के दाने, बच्चों की सेहत को लेकर जिम्मेदार भी कतई फिक्रमंद नजर नहीं आते।

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बरेली : मिडडे मील में कम मिले सेहत के दाने, बच्चों की सेहत को लेकर जिम्मेदार भी कतई फिक्रमंद नजर नहीं आते।

जागरण संवाददाता, बरेली: स्कूलों में बच्चों को घटिया गुणवत्ता का मिडडे मील परोसा जा रहा है। इसका खुलासा खाद्य सुरक्षा विभाग की रिपोर्ट में हुआ है। विभाग ने बच्चों को दिए जाने वाले भोजन के नमूनों को जांच के लिए प्रयोगशाला भेजा था। रिपोर्ट आई तो पता चला कि खाना सब स्टैंडर्ड दिया जा रहा है।

टास्क फोर्स को फुर्सत नहीं

बच्चों की सेहत को लेकर जिम्मेदार भी कतई फिक्रमंद नजर नहीं आते। तभी तो जिले में गठित टास्क फोर्स को जांच के लिए फुर्सत ही नहीं। इस टास्क फोर्स में डीएम, सीडीओ समेत आला अफसर भी हैं। इस संबंध में प्रभारी डीएम शिव सहाय अवस्थी को डीएम के सीयूजी नंबर पर फोन किया लेकिन उन्होंने रिसीव नहीं किया। डीएम गौरव दयाल अवकाश पर हैं।

इन स्कूलों में पाया सब स्टैंडर्ड भोजन

जूनियर हाईस्कूल अगरास में तैयार अरहर की दाल, प्राथमिक विद्यालय मिलक मझारा में तहरी, प्राथमिक विद्यालय बिछुरइया में मिडडे मील के लिए इस्तेमाल हो रहा मस्टर्ड ऑयल, प्राथमिक विद्यालय कैमुआ में तैयार मसूर की दाल, प्राथमिक विद्यालय कठर्रा में आलू सब्जी, प्राथमिक विद्यालय नवदिया झादा में सब्जी।

सेहत आंकने को बना ढांचा कागजी

मिडडे मील योजना सिर्फ भोजन परोसने की योजना बन जाए इसलिए पूरा ढांचा बनाया गया है। हालांकि ये कागजी बनकर रह गया है। भोजन के पर्याप्त पोषक तत्व रहें इसको जांचने के लिए न्यूट्रीशन बोर्ड केंद्र से लेकर राज्य स्तर तक गठित है। स्कूलों में बच्चों का वजन और लंबाई मापने के लिए वेइंग मशीन और दीवार पर हाइट चार्ट बनाना अनिवार्य है। इन मापकों का रिकॉर्ड हर महीने दर्ज करने की जिम्मेदारी स्कूल स्टाफ की है। काफी जगह यह मापक मौजूद हैं लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं होता। अधिकांश जगह तो रिकॉर्ड भी नहीं है।

छह लाख बच्चों की थाली पर नजर

मिडडे मील खिलाने में गड़बड़ी करने के पीछे सीधा गणित है। प्राथमिक विद्यालय के एक बच्चे को 100 ग्राम खाद्यान्न और जूनियर हाईस्कूल के बच्चे को 150 ग्राम खाद्यान्न तय है। इस खाद्यान्न को तैयार करने के लिए प्राइमरी के एक बच्चे पर तीन रुपये 86 पैसे और जूनियर हाईस्कूल के एक बच्चे पर पांच रुपये खर्च दिया जाता है। जिले में सिर्फ परिषदीय स्कूलों में करीब सवा चार लाख बच्चे हैं। इतने बच्चों पर हर महीने औसतन 20 लाख रुपये भोजन बनाने में खर्च हो रहा है। कस्तूरबा विद्यालय, सहायता प्राप्त, माध्यमिक विद्यालयों के बच्चों को भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या छह लाख के पार हो जाती है। इतनी बड़ी रकम और खाद्यान्न में कटौती की बंदरबांट में बच्चों की सेहत दांव पर लग जाती है। नगर क्षेत्रों में एनजीओ तो देहात में प्रधान से लेकर कई दूसरे अधिकारी भी हिस्सेदार बन जाते हैं। कई स्कूल ऐसे हैं जिनमें मिडडे मील बंटता ही नहीं। शहरों में बच्चे अपना टिफिन लेकर आते हैं लेकिन खर्च का हिसाब पूरा बनता है।

ये सर्वे नमूने थे जो सब स्टैंडर्ड मिले यानी खाने में पोषक तत्व की कमी है। लीगल नमूनों में विभाग की ओर से कानूनी प्रक्रिया अपनाई जाती है। रिपोर्ट बीएसए को भेज दी गई है।

- अजय जायसवाल, जिला खाद्य सुरक्षा अधिकारी

मिड डे मील की गुणवत्ता सुधारने को सख्त कदम उठाया जाएगा। जहां भी लापरवाही बरती जा रही है, वहां के जिम्मेदारों पर कार्रवाई सुनिश्चित होगी।

- डीएस सचान, बीएसए


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