गांव के इस सरकारी विद्यालय के शिक्षकों ने कर दी अवकाश की ‘छुट्टी’।
गांव का सरकारी स्कूल.., यह सुनते ही जो तस्वीर जेहन में उभरती है, वह उम्मीद नहीं जगाती। गांव का सरकारी स्कूल आखिर कैसा होना चाहिये? इस बात का जवाब आपको छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में आकर मिल सकता है। जिले के आदिवासी बहुल गांव मुरमुर स्थित शासकीय पूर्व माध्यमिक बालिका विद्यालय में प्रवेश करते ही आपके मुंह से तारीफ के बोल निकल पड़ेंगें।
इस स्कूल में पदस्थ शिक्षक शिक्षा का ऐसा उजियारा फैला रहे हैं, जो विरले ही दिखाई पड़ता है। यहां अवकाश के दिनों में भी कक्षाएं लगती है। बड़े तीज-त्योहारों को छोड़कर ऐसा कोई दिन नहीं होता, जब स्कूल की घंटी न बजती हो। आदिवासी बालिकाएं सुव्यवस्थित यूनिफार्म में और पूरी संख्या में हर दिन उपस्थित होती हैं। स्कूल में केवल शिक्षा का ही अनुशासन नहीं है बल्कि इसका हर काम, हर कोना आपको प्रभावित कर जाता है। आप कह उठते हैं कि स्कूल हो तो ऐसा। शिक्षा के प्रति समर्पित, साफ-सुथरा और सुव्यवस्थि। हरियाली से भरा सुंदर परिसर। दीवारों पर लिखे प्रेरक संदेश। ऐसा लगता है मानो कोई गुरुकुल है। यहां आने पर सरकारी स्कूल को लेकर धारणा सिरे से बदल जाती है।
शिक्षकों और स्टॉफ के साथ मिलकर आदिवासी बालिकाओं ने स्कूल को मंदिर की तरह सहेज कर रखा है। जितनी साफ-सफाई स्कूल परिसर और कक्षाओं की है,उसी तर्ज पर अध्ययन-अध्यापन पर भी जोर दिया जा रहा है। स्कूल के हेडमास्टर टीकादास मरावी ने सहयोगी शिक्षकों और स्टॉफ के साथ मिलकर अवकाश की भी ‘छुट्टी’ कर दी है। अवकाश के दिनों में भी कक्षाएं लगती हैं। यहां आदिवासी बालिकाओं को किताबी ज्ञान के साथ ही सामान्य ज्ञान, सांस्कृतिक गतिविधियों और खेलकूद में भी निपुण किया जा रहा है। स्कूल में करीब 550 छात्रएं पढ़ रही हैं। अवकाश के दिनों में भी इनकी उपस्थिति शत-प्रतिशत रहती है, जो शिक्षा के प्रति इनके समर्पण को दर्शाने के लिए पर्याप्त है।
शानदार है किचन गार्डन भी: स्कूल परिसर में सुंदर बगीचा तो है ही साथ ही किचन गार्डन भी विकसित किया गया है। बगीचे में जहां अनेक किस्म के फूलों के पौधे लगाए गए हैं, वहीं किचन गार्डन में गोभी, मेथी, लाल भाजी, लहसुन, अदरक, मिर्च,आलू, सेमी, भिंडी, टमाटर सहित दर्जनों प्रकार की सब्जियां लगी हुई हैं। मध्याह्न भोजन में इन्हीं सब्जियों का इस्तेमाल किया जाता है।
जब इस स्कूल में पोस्टिंग हुई थी तब आदिवासी बालिकाओं की उपस्थिति काफी कम हुआ करती थी। पालकों का कहना था कि स्कूल लगता ही नहीं तो क्या करें। उनके मन से इस धारणा को खत्म करने के लिए अवकाश के दिनों में भी शिक्षकों ने स्कूल जाना शुरू किया। धीरे-धीरे हमारी कोशिश रंग लाने लगी। अब तो रविवार को भी स्कूल की सभी कक्षाएं लगती हैं। स्कूल को साफ-सुथरा और सुंदर बनाए रखने में भी बच्चियां खुद ही सक्रिय रहती हैं।