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MAN KI BAAT : शिक्षा का हिस्सा बने हमारी विरासत......

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MAN KI BAAT : शिक्षा का हिस्सा बने हमारी विरासत......

शिक्षा का उद्देश्य प्रथमत: मनुष्य का निर्माण करना है और मनुष्य का निर्माण अस्मिता और गरिमा बोध से ही होता है। भारतीय शिक्षा सैकड़ों वर्षो से इस दृष्टि से असफल रही है, क्योंकि अस्मिता बोध और गरिमा बोध इतिहास बोध पर निर्भर करते हैं। पूर्वजों के मान-अपमान की गाथाएं और जय-पराजय की स्मृतियां किसी भी समूह में सहज रूप से प्राप्त होती हैं। इसके साथ एक और चीज प्राप्त होती है जो हमारे पूर्वजों के द्वारा हमें उत्तराधिकार के रूप में मिलती है, वह है हमारी विरासत। उसकी विशिष्टता यह है कि उसमें अपमान या पराजय की कोई जगह नहीं होती। विरासत कोई संग्रहालय की वस्तु नहीं है। वह जीवंत थाती है जो अपने पूर्वजों से जोड़कर हमें स्पंदित और आनंदित करती है। इस विरासत की शिक्षा नहीं दिए जाने पर हमारा पारंपरिक जीवन अंध रूढ़ियों का शिकार हो जाता है। भारत विविधताओं का देश है। यह विविधता केवल भाषा, बोली, खान-पान, वेश-भूषा की ही नहीं है, अपितु विरासत का भी वैविध्य है। अपने ही पूर्वजों की सृजनधर्मिता और कृतित्व में वैविध्य के आधार पर संघर्ष की स्थिति भी बनती है। भारत में ऐसा हुआ भी है। विरासत सबकी होती हैं, लेकिन समय के साथ परंपरा को, इतिहास को, विरासत को साझा समझा जाने लगा। भारतीय विरासत चाहे ज्ञान सिद्धांत के रूप में हो, विविध प्रकार के कौशल के विकास के रूप में हो, स्थापत्य के रूप में हो वह साझी नहीं, सबकी है। जब सब सबका है तो हेय कुछ भी नहीं है, लेकिन जो हमारा है, वह हमारे लिए किस तरह उपादेय है, यह जानना जरूरी है। विरासत हमें प्राप्त होती है, उसे हम गढ़ नहीं सकते। इसीलिए विरासत को समझने के लिए शिक्षण आवश्यक है। दुर्भाग्य से भारत में विरासतें और परंपराएं साङोपन के आधार पर समझी गईं। हिस्सेदारी के आधार पर समझी गईं। जब हिस्सेदारी आएगी तो अपने हिस्से का दुगरुण भी लेकर आएगी। यही हुआ हमारे देश में। हमने परंपरा को बांट दिया। विरासत को बांट दिया।

भारत की विरासत को कैसे समझा जाए, इस पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया है। अयोध्या में रामलला को विधिक पक्ष स्वीकार करना और उसके आधार पर भारत में सबकी विरासत के रूप में रामलला को स्वीकृत करने वाला निर्णय विरासतों को देखने की एक सम्यक दृष्टि देता है। राम को कुछ लोग ईश्वर, कुछ इमामे-हिंद मानते हैं तो यह स्वीकृति को साझा करना है, लेकिन जब सब उन्हें अपना पूर्वज, पूर्वजों में श्रेष्ठतम स्वीकार करते हैं तो यह परंपरा में सहभागी होना है। अपने मान बिंदु को अपने जीवन का हिस्सा बनाना है। परंपरा और इतिहास के गौरव से स्वयं को गौरवान्वित करना है। इसके लिए एक विशिष्ट प्रकार की शिक्षा का स्वरूप सामने लाना होगा जिसमें इतिहास यश और कीर्ति का इतिहास होगा, जय का इतिहास होगा। जो कुछ हमारे लिए गौरवशाली है, उसका भी अपना कोई न कोई इतिहास होगा। इसका यह आशय नहीं कि जय के साथ पराजय का इतिहास नहीं होगा। यश-कीर्ति के साथ अपनी गलतियों-अपयश का इतिहास नहीं होगा, किंतु दोनों शिक्षण के लिए होंगे, ताकि गलतियों को सुधारा जा सके और कलंक के हिस्से का प्रायश्चित किया जा सके। यह स्वाभाविक तौर पर जीवंत समाज करता रहा है, लेकिन कहीं न कहीं हम वर्षो तक अंधकार में रहे हैं। यह अंधकार है स्पष्ट लक्ष्य के न होने का। जब तक प्रकाशपुंज के रूप में सामने कोई लक्ष्य नहीं होता है तब तक मनुष्य अंधेरे में हाथ-पांव मारता रहता है। विरासत, परंपरा, मान बिंदु-ये ही वे लक्ष्य हैं जहां मनुष्य जाना चाहता है, बल्कि उसके भी पार जाना चाहता है। बेहतर बनने और बनाने के लिए श्रेष्ठ रचना चाहता है, लेकिन उसके लिए विरासत को जानना और मानना पड़ेगा। समाज को जीवंत परंपरा और विरासत के अनुकूल बनना पड़ेगा। इसलिए जरूरी है कि आज भारत में शिक्षा को उस अधिष्ठान पर खड़ा किया जाए, जिसके मूल में हजारों-हजार वर्ष से भारतीय जन के द्वारा तप और बलिदान द्वारा श्रेष्ठतम सांस्कृतिक परंपराएं विकसित हुईं। ये सांस्कृतिक परंपराएं अद्वितीय दर्शन और सबको समाविष्ट करते हुए सबके हित का विचार करनेवाली संस्कृति निर्मित हुई, वही भारत की विरासत है। उस विरासत का एक छोर स्थापत्य में मिलता है जहां अनगढ़ और जड़ पत्थर से ऊपर उठता हुआ मंदिर के कलश के रूप में विशुद्ध चेतना विद्यमान रहती है। एक पुरातत्ववेत्ता जमीन के नीचे दबी हुई दुनिया में खोज करते किसी पत्थर, सिक्के, शिलालेख या प्रतिमा के रूप में ऐसा खजाना पा लेता है जिसमें गौरवशाली इतिहास झांकता है। मोहनजोदड़ो की योगी प्रतिमा से लेकर सारनाथ की बुद्ध प्रतिमा में ज्ञान की गौरवशाली विरासत का दर्शन भी सहज होता है। विरासत को समझने के लिए लोक जीवन की ध्वनि को समझते हुए शिक्षण की आवश्यकता है। वरना विरासत के आधार पर लड़ाई होगी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम विरासतों के आधार पर लड़े हैं। वर्ष 1857 के पहले भी लड़ते थे फिर साथ आ जाते थे। वर्ष 1857 के बाद जब विरासतों के बोध से विहीन शिक्षा मुख्यधारा की शिक्षा हो गई, प्रधान शिक्षा हो गई तो हम विरासत के आधार पर लड़ने लगे। अपनी-अपनी विरासत को साझा बनाने के लिए लड़ने लगे। भाषा के स्तर पर हम सब जो हम थे, मैं और तुम के रूप में सामने आने लगे।

अयोध्या पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद आज विरासतों को समझने के लिए पूरे देश में एक दृष्टि बनती हुई दिखाई दे रही है। पूर्वजों के महनीय कृतित्व में विश्वास जगाने और गलतियों को सुधारने की जिम्मेदारी भी हमारी है। इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए शांतिपूर्ण सामाजिक सह अस्तित्व की आवश्यकता है। उस शांतिपूर्ण सह अस्तित्व में जैविक स्पंदन होगा। उसके लिए हम सबको अपने खांचों और घरौदों से बाहर निकलना होगा। इसीलिए घरौदों से बाहर निकालने और त्रण देने वाली शिक्षा की जरूरत है। उस शिक्षा की जरूरत है जो भारतीय जनों को विरासत की सारस्वत महत्ता का बोध कराए, शील का संस्कार दे, शिष्ट मर्यादाओं और आदर्शो की ओर उन्मुख करे। तभी वैचारिक और ऐतिहासिक दीनता से मुक्ति मिलेगी और शिक्षा राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान का उपक्रम बनती नजर आने लगेगी। वह शिक्षा देशवासियों को परंपरागत धार्मिक, नैतिक और सामाजिक मूल्यों के प्रति सुमुख भी बनाएगी।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)

विरासत वह जीवंत थाती है जो अपने पूर्वजों से जोड़कर हमें स्पंदित और आनंदित करती है। इसकी शिक्षा नहीं दिए जाने पर जीवन अंध रूढ़ियों का शिकार हो जाता है।

प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल

शिक्षा का हिस्सा बने हमारी विरासत
साभार : दैनिक जागरण सम्पादकीय पृष्ठ

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