अजय कुमार सिंह ,गोरखपुर | स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में वेतन के लिए प्रबंधतंत्र की मर्जी पर निर्भर रहने की शिक्षकों की मजबूरी दूर होगी। बेहद मामूली या न के बराबर वेतन पाने वाले ऐसे शिक्षकों की गरीबी दूर करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति वी.के.सिंह द्वारा गठित समिति ने अपनी रिपेार्ट दे दी है।यह रिपेार्ट यदि लागू होती है तो डीडीयू से जुड़े 309 स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों को अपने शिक्षक को कम से कम 57,700 रुपए का भुगतान हर महीने करना होगा। इससे इन महाविद्यालयों में कार्यरत साढ़े चार से पांच हजार शिक्षकों को लाभ होगा। यही नहीं शिक्षकों को असिटेंट प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर का पदनाम भी मिलेगा। असिस्टेंट से एसोसिएट बनने की प्रक्रिया वही होगी जो गैर शासकीय महाविद्यालयों में होती है।असिस्टेंट प्रोफेसर की सैलरी जहां5 57,700 रुपए होगी वहीं एसोसिएट की 79,800 रुपए और प्राचार्य की 1,44,200 रुपए। विवि यह प्रस्ताव शासन को भी भेज सकता है। उत्तर प्रदेश में करीब 6200 स्ववित्तपोषित महाविद्यालय हैं जिनमें 80 से 90 हजार शिक्षक कार्यरत हैं। समिति ने शिक्षकों और प्राचार्यों की सैलरी बढ़ाने के साथ ही महाविद्यालयों की आय और पठन-पाठन की गुणवत्ता सुधारने का तरीका भी सुझाया है। यह तीन सदस्सीय समिति कुलपति प्रो.वी.के.सिंह ने 27 जून 2020 को प्रो.राजवंत राव की अगुवाई में गठित की थी। विवि की ही प्रो.सुधा यादव और महाराणा प्रताप पीजी कालेज जंगल धूसड़ के प्राचार्य डा.प्रदीप राव समिति के सदस्य थे।
समिति ने महाविद्यालयों द्वारा पिछले वर्षों में प्रस्तुत आय-व्यय के ब्यौरों, शासनादेशों, नियुक्ति प्रक्रिया और वेतन भुगतान की मौजूदा स्थितियों का विस्तृत अध्ययन कर अपनी संस्तुतियां दी हैं। शुक्रवार को समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी।
फीस में चार गुनी बढ़ोत्तरी की सिफारिश
समिति का कहना है कि पिछले 23 वर्षों से बीए, बीएससी, बीकॉम का शिक्षण शुल्क सिर्फ 5000 रुपए वार्षिक है। इसी तरह एमए, एमएससी और एमकॉम का शिक्षण शुल्क 6000 वार्षिक। गरीब विद्यार्थियों की फीस की प्रतिपूर्ति सरकार देती है। बीए के सात, बीएससी के पांच और बीकॉम के तीन विषयों के साथ चलने वाले महाविद्यालयों में यदि सभी सीटें भरी हों तब भी वार्षिक आय 60 लाख रुपए से अधिक नहीं होती। जबकि इतनी सीटों पर 15 शिक्षक रखने होते हैं। इसी वजह से शिक्षकों का वेतन पूरी तरह प्रबंध तंत्र की इच्छा पर निर्भर करता है। यही नहीं बहुत से महाविद्यालयों में अनुमोदित शिक्षकों की जगह किसी और से काम लिया जाता है। शिक्षक-प्राचार्य नियमित तौर पर उपस्थित नहीं रहते और पढ़ाई की गुणवत्ता पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता है। इक्का-दुक्का महाविद्यालयों को छोड़कर ज्यादातर की यही स्थिति है। समिति ने कोविड-19 के संकट काल में बहुत से महाविद्यालयों द्वारा शिक्षकों को वेतन न दिए जाने पर भी प्रकाश डाला है। समिति का कहना है कि यदि शुल्क बढ़ोत्तरी होती है तो इससे गरीब छात्र अप्रभावित रहेंगे क्योंकि उनकी प्रतिपूर्ति पहले से ही सरकार कर रही है। समिति के मुताबिक चूंकि स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों की आय का एकमात्र जरिया फीस ही है इसलिए इसे बढ़ाने के अलावा उच्च शिक्षा की दशा और दिशा सुधारने का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। लिहाजा वर्तमान फीस में चार गुनी बढ़ोत्तरी करते हुए स्नातक स्तर पर 20 हजार और स्नातकोत्तर स्तर पर 25 से 30 हजार रुपए शुल्क लिए जाने का प्रस्ताव समिति ने किया है।
आय का 65 प्रतिशत वेतन पर खर्च हो
समिति के मुताबिक फीस बढ़ोत्तरी से महाविद्यालयों की आय उल्लेखनीय रूप से बढ़ जाएगी। यदि सभी सीटें भरी हों तो स्नातक स्तर के विषयों से महावि़द्यालय को वर्ष में 2.40 करोड़ तक की आय होगी। प्रस्ताव के मुताबिक शिक्षकों और कर्मचारियों को वेतन देने पर करीब 1.53 करोड़ का खर्च आएगा जो कुल आय का 63.66 प्रतिशत होगा। समिति के मुताबिक फिलहाल शासनादेश के मुताबिक महाविद्यालयों को 75 से 80 प्रतिशत वेतन पर खर्च करना होता है। जाहिर है नई व्यवस्था में महाविद्यालयों के पास ज्यादा रुपए बचेंगे। समिति ने आय का 15 प्रतिशत शैक्षणिक गतिविधियों और 20 प्रतिशत महाविद्यालय के विकास पर खर्च करने का प्रस्ताव किया है ताकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सके।
अनिवार्य रूप से कटे ईपीएफ
शिक्षकों के वेतन और ईपीएफ भुगतान की सुनिश्चितता के लिए भी समिति ने सिफारिश की है। समिति ने कहा है कि हर महीने ऑनलाइन भुगतान शिक्षकों-कर्मचारियों के खाते में होना चाहिए। ईपीएफ अनिवार्य रूप से कटना चाहिए और हर साल हर महाविद्यालय में आय-व्यय का ऑडिट होना चाहिए। इसके साथ ही समिति ने प्रबंधतंत्र की सहूलियत के लिए कहा है कि यदि महाविद्यालय में सीटें खाली रह जाती हैं तो वेतन भुगतान में उसी अनुपात में कमी लाई जा सकती है लेकिन यह बेहद पारदर्शी ढंग से होना चाहिए।